फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी हिन्दी मे | 299+ BEST Faiz Ahmad Faiz Shayari in Hindi
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=> 01 - टॉप Faiz Ahmad Faiz Shayari in Hindi With Images
#आदमियों से भरी है यह सारी #दुनिया मगर
आदमी को ''आदमी'' होता नहीं है दस्तयाब*
गर बाज़ी ''इश्क़'' की बाज़ी है जो चाहो लगा दो_डर कैसा
गर जीत गए तो क्या_कहना हारे भी तो बाज़ी ''मात'' नहीं
*
जुदा थे हम तो #मयस्सर थीं कुर्बतें कितनी,
वहम हुए तो पड़ी हैं "जुदाइयाँ" क्या-क्या।
नहीं #निगाह में मंज़िल तो "जुस्तुजू" ही सही
नहीं विसाल #मयस्सर तो आरज़ू ही सही
मताए #लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या गम है
कि "खून-ए-दिल" में डूबो ली हैं उंगलियां मैंने.
जुबां पे मुहर लगी है तो क्या, कि_रख दी है
हर एक #हल्का-ए-जंजीर में जुबां मैंने
सजाओ #बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम #ताज़ा करो ''बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है''
*
निसार मैं तेरी_गलियों पे ए वतन, के जहां
चली है रस्म कि कोई ना सर_उठाके चले.
दिल #नाउम्मीद तो नहीं ''नाकाम'' ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर #शाम ही तो है
दिल से तो हर #मोआमला कर के चले थे साफ़ हम
कहने में उन के ''सामने'' बात बदल_बदल गई
शैख़ साहब से #रस्म-ओ-राह न की शुक्र है ज़िंदगी_तबाह न की
=> 02 - Faiz Ahmad Faiz Shayari On Love
जो कोई_चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, #जिस्म-ओ-जां बचा के चले
''बोल'' कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल जबां अब #तक तेरी है
तेरा सुतवां, #जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब_तक तेरी है
*
हम "शैख़'', न लीडर, न #मुसाहिब, न सहाफ़ी
जो ख़ुद नहीं करते वो #हिदायत न करेंगे
उतरे थे कभी 'फ़ैज़' वो आईना-ए-दिल में
''आलम'' है वही आज भी #हैरानी-ए-दिल का
आए ''कुछ'' अब्र कुछ शराब आए
इस के बाद आए जो #अज़ाब आए
हम #मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा_मांगेंगे
इक ''बाग़'' नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी 'दुनिया' मांगेगे
*
वो बुतों ने #डाले हैं वसवसे कि दिलों से #ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि #ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया
गर बाजी ''इश्क'' की बाजी है, तो जो भी लगा दो_डर कैसा,
जीत गए तो #बात ही क्या, हारे भी तो ''हार'' नहीं
हाँ #नुक्ता-वरो लाओ लब-ओ-दिल की ''गवाही''
हाँ नग़्मागरो #साज़-ए-सदा क्यूँ नहीं देते
-
गर बाजी ''इश्क'' की बाजी है, तो जो भी लगा_दो डर कैसा,
जीत गए तो "बात" ही क्या, हारे भी तो #हार नहीं
=> 03 - फैज अहमद फैज कविता कोश
फिर ''नजर'' में फूल महके दिल में फिर #शम्में जलीं,
फिर 'तसव्वुर' ने लिया उस #बज़्म में जाने का नाम।
-
तेरी "उम्मीद" तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से #शिकायत न दिन को शब से है
किसी का 'दर्द' हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तेरे #सबब से है
*
ये #आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर "हमदम"
#विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
-
#मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे
दर्द जब "जाँ-नवाज़" हो जाए
तुमने_देखी है वो *पेशानी* वो रूखसार*, वो होंठ
जिन्दगी जिनके *तसव्वर* में लुंटा दी मैंने
-
#मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में ''जचा'' ही नहीं
जो #कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
*
वो बात सारे #फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
वो बात उन को बहुत #ना-गवार गुज़री है
-
आये_तो यूँ कि जैसे हमेशा थे #मेहरबाँ
भूले तो यूँ कि जैसे कभी *आश्ना* न थे
कब तक दिल की ख़ैर ''मनाएँ'' कब तक रह दिखलाओगे
कब तक #चैन की मोहलत दोगे कब तक 'याद' न आओगे
रात यूँ "दिल" में तिरी खोई हुई याद आई
जैसे वीराने में #चुपके से बहार आ जाए
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शाम-ए-फ़िराक़ ''अब'' न पूछ आई और आ के टल गई दिल था कि फिर #बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई
=> 04 - फैज की शायरी हम देखेंगे
आप की #याद आती रही रात भर''
'चाँदनी' दिल दुखाती रही रात_भर
-
लौट जाती है #उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न_मगर क्या कीजे
*
क़फस_उदास है यारों सबा से "कुछ" तो कहो
कहीं तो #बहरे-खुदा आज ''ज़िक्र-ए-यार'' चले
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इक #फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार_दिन
देखे हैं हम ने हौसले #परवरदिगार के
जो तलब पे #अहद-ए-वफ़ा किया तो वो "आबरू-ए-वफ़ा" गई
''सर-ए-आम'' जब हुए मुद्दई तो #सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया
-
इक #गुल के मुरझाने पर क्या "गुलशन" में कोहराम मचा
इक चेहरा #कुम्हला जाने से कितने ''दिल'' नाशाद हुए
*
#दोनों जहां तेरी ''मोहब्बत'' में हार के
वो जा रहा है कोई #शब-ए-गम गुज़ार के
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#गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़ारा का ''असर'' तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो #साया-ए-तर तो देखो
इक #तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक
इक #अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम_करते रहेंगे
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''दिल'' ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम_मगर शाम ही तो है
=> 05 - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ गीत
हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी
जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे
-
“ न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं ”
*
“ इक तिरी दीद छिन गई मुझ से
वर्ना दुनिया में क्या नहीं बाक़ी ”
-
“ अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें
रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम ”
“ ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू
सुलूक जिस से किया हम ने आशिक़ाना किया ”
-
“ हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ
दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह ”
*
“ज़ब्त का अहद भी है शौक़ का पैमान भी है
अहद-ओ-पैमाँ से गुज़र जाने को जी चाहता है
-
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं
“मेरी क़िस्मत से खेलने वाले
मुझ को क़िस्मत से बे-ख़बर कर दे
-
जो कुछ भी बन न पड़ा 'फ़ैज़' लुट के यारों से
तो रहज़नों से दुआ-ओ-सलाम होती रही ”
=> 06 - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कॉलेज
हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं”
-
वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
*
बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल, कि जाँ अब तक तेरी है
-
कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
^
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
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आदमियों से भरी है यह सारी दुनिया मगर,
आदमी को आदमी होता नहीं दस्तयाब।
*
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।
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जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं।
^
गुजरे जमाने से इसी तरहा मुलाकात कराते रहिये,
दिन जो ढल जाये तो एक दीप जलते रहिये।
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कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए
=> 07 - राहतें और भी हैं
आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर
-
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।
*
अभी बादबाँ को तह् रखो अभी मुज़तरिब है रुख़-ए-हवा
किसी रास्ते में हैं मुंतज़िर वो सुकूँ जो आके चला गया
-
जो तलब पे अहदे-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सरे-आम जब हुए मुद्दई तो सवाबे-सिदको-सफ़ा गया
^
न वो रंग फ़स्ल-ए-बहार का न रविश वो अब्र-ए-बहार की
जिस अदा से यार थे आश्ना वो मिज़ाज-ए-बाद-ए-सबा गया
-
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलु बना जो उठा तो हाथ क़लम हुये
वो निशात-ए-आहे-सहर गई वो विक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया
*
वो बुतों ने डाले हैं वस्वसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़्याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया
-
वो आये पुरसिश को, फिर सजाये
कबा-ए-रंगीं अदा-ए-सादा
^
कि एक दिन फिर नज़र में आये
वो बाम रौशन वो दर कुशादा
-
न जाने किस दिन से मुंतज़िर है
दिले-सरे-रहगुज़र फ़तादा
=> 08 - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शिक्षा
अता करो इक अदा-ए-देरीं
तो अश्क से तर करें लबादा
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नदीम हो तेरा हरफ़े-शीरीं
तो रंग पर आये रंगे-बादा
*
तुझे पुकारा है बेइरादा
जो दिल दुखा है बहुत ज़ियादा
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दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है,
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
^
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब,
आज तुम याद बे-हिसाब आए
-
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी,
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी
*
सारी दुनिया से दूर हो जाए,
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे
-
दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम,
कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई
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